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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 91  देवयानी की दंभ भरी बातें सुनकर कच को हंसी आ गई  "यानी तुम केवल स्वयं से प्रेम करती हो । जो व्यक्ति स्वयं से प्रेम करता है उसे कोई अन्य व्यक्ति अच्छा नहीं लगता है । क्या कभी तुमने स्वयं को आईने में देखा है ? यदि नहीं देखा है तो अब देखना । और जरा ध्यान से देखना । कितना वीभत्स चेहरा है तुम्हारा ! इस वीभत्स चेहरे के ऊपर तुमने जो सौन्दर्य का आवरण चढा रखा है ना, यह आवरण शीघ्र ही हट जायेगा और तुम्हारा असली रूप सबको नजर आ जायेगा । शर्मिष्ठा को दासी बनाकर तुमने उस वीभत्स चेहरे की एक झलक तो दिखला ही दी है । अब तो तुम महारानी बन गई हो , इसलिए अब तुम्हारा यह वीभत्स रूप सबको बार बार नजर आयेगा । तुम ययाति के साथ भी वैसा ही व्यवहार करोगी जैसा मेरे और शर्मिष्ठा के साथ किया था ।  एक बार सोच कर देखो यानी कि फिर सम्राट ययाति क्या सोचेंगे तुम्हारे बारे में ? अभी भी समय है यानी , अभिमान के पर्वत पर बैठकर दूसरों को तुच्छ समझने की प्रवृत्ति को त्याग दो । संवेदनशील बनो , कोमल हृदया बनो । मानव मात्र से प्रेम करो । महाराज ययाति से प्रेम करो । इसी में तुम्हारा हित है । अभी तुम केवल ऐश्वर्य भोगने के लिए ही महारानी बनी हो, प्रेम करने के लिए नहीं । ययाति से तुम्हें प्रेम नहीं है , तुम्हें तो प्रेम है उसके ऐश्वर्य से । तुमने किसी को दिया ही क्या है अब तक ? सबसे केवल लिया ही लिया है । अब देना सीखो यानी , लेना नहीं । तुमने शर्मिष्ठा का समस्त जीवन ले लिया । तुमने मुझे श्राप देकर मेरी सारी तपस्या भंग कर दी । तुमने महाराज वृषपर्वा और महारानी प्रियंवदा का सर्वस्व छीन लिया । अब सम्राट ययाति की गति भी वैसी ही करोगी क्या ? तुमने ययाति को पति रूप में स्वीकार किया है । ययाति ने तुम्हें पत्नी बनने का प्रस्ताव नहीं दिया था । अब तुम्हें ययाति को अपना सर्वस्व अर्मपण कर देना यानी । उन्हैं हृदय से प्रेम करना यानी नहीं तो फिर तुम्हें पश्चाताप की ज्वाला में धधकने का अवसर भी नहीं मिलेगा  । एक बात स्पष्ट कर दूं कि मैंने तुम्हें सदैव गुरू पुत्री ही समझा है और आगे भी वही समझूँगा । इसलिए मैं तुम्हारे हित के लिए ये बातें कह रहा हूं । यदि मेरी बातें तुम्हें बुरी लगी हों तो मैं उनके लिये क्षमा मांगता हूं" । इतना कहकर कच अन्तर्ध्यान हो गया ।

देवयानी की नींद खुल गई । वह बुरी तरह से कांप रही थी । 'ये कैसा स्वप्न है ? क्या कच सही कह रहा था ? संभवत: सही ही कह रहा था । कच ने कभी असत्य भाषण नहीं किया था । वह तो अद्वितीय है । कच के जैसा और कौन है इस जगत में ? सम्राट ययाति भी नहीं । लेकिन मैं भी क्या करती ? कच ने मुझे स्वीकार ही नहीं किया । मैं तो बहुत चाहती थी कि मैं कच की हो जाऊं पर कच ने ही मुझे ठुकराया था , मैंने नहीं । उसकी टीस आज तक मेरे मन में उठ रही है । कच के ठुकराने का ही तो असर है कि मैं इतनी कठोर हो गई कि अपनी सबसे अच्छी सखि को उसकी दासी बनने पर विवश कर दिया था मैंने । मैं ईर्ष्या-द्वेष की आग में जल रही थी और अभी भी जल रही हूं । कच यही तो कह रहा था कि अब उसे अपनी इस प्रवृत्ति में परिवर्तन करना चाहिए , नहीं तो " ?

इस "नही तो" का कोई अंत नहीं था । वह झटपट पलंग से उठी और भागकर सीधे आईने के सामने जाकर खड़ी हो गई । सच में उसे अपना चेहरा बहुत वीभत्स नजर आ रहा था । इतना कठोर , इतना दंभी, इतना ईर्ष्यालु , इतना क्षुद्र ! अपना चेहरा देखकर वह बहुत दुखी हो गई । "क्या मेरे पापों का कभी अंत होगा" ? उसके अंदर से आवाज आई ।  "क्यों नहीं ? कच ने ही तो रास्ता सुझाया था अभी स्वप्न में ! यदि वह कच के बताए रास्ते पर चलने का प्रयास करे तो वह भी बदल सकती है । वह भी पुरानी देवयानी बन सकती है , प्यारी सी , मासूम सी , भोली सी" ।  उसने बदलने का निश्चय कर लिया ।

उसने अपने कक्ष का दरवाजा खोला । सामने शर्मिष्ठा खड़ी हुई थी । वह एक पल को भी नहीं बैठी थी । उसने भी तो यात्रा की थी । उसने तो और भी कार्य किये थे और वह कबसे बाहर खड़ी हुई है । एक पल को भी उसने विश्राम नहीं किया है । उसे देखकर देवयानी का मन ग्लानि से भर गया । "क्या गत बनाकर रख दी है उसने शर्मिष्ठा की ? महलों की राजकुमारी आज उसकी सेवा में एक पैर पर खड़ी है । कितना अन्याय किया है उसने उस पर" ? सोचकर देवयानी की आंखें भर आईं ।

देवयानी की आंखों में आंसू देखकर शर्मिष्ठा भयभीत हो गई । "न जाने क्या हो गया है देवयानी को" ? ऐसा सोचकर वह देवयानी की ओर दौड़ी "स्वामिनी, क्या हो गया है आपको ? आपकी आंखों में ये आंसू कैसे हैं ? मुझसे कोई भूल हुई है क्या स्वामिनी" ? कहते कहते शर्मिष्ठा देवयानी के चरणों में गिर पड़ी ।  शर्मिष्ठा को बांहों भरकर उठाते हुए देवयानी बोली "सखि , मुझे क्षमा कर दो । मैं पापिन हूं । मैं पाषाण हूं । मैंने तुझे क्या से क्या बना दिया ? मैंने हर जगह अपमान किया है तेरा । और तू बिना कुछ कहे सब सहन कर रही है । तू इतनी अच्छी क्यों है शर्मिष्ठा और मैं इतनी बुरी क्यों हूं" ? कहते कहते देवयानी फफक पड़ी और उसने शर्मिष्ठा को अपने हृदय से लगा लिया ।

शर्मिष्ठा देवयानी का यह रूप देखकर दंग रह गई । अचानक इसे क्या हो गया है ? आज तो इनकी प्रथम मिलन की रात है और आज यह ऐसी बहकी बहकी सी बातें क्यों कर रही है ? ऐसी स्थिति में यदि किसी ने इसे इस हालत में देख लिया तो कोई क्या सोचेगी ? शर्मिष्ठा देवयानी को अपने से लिपटाये हुए ही अंदर कक्ष में ले गई और उसने दरवाजा बंद कर लिया । उसने देवयानी को पलंग पर बैठाया और उसके आंसू पोंछने लगी । देवयानी ने शर्मिष्ठा का हाथ पकड़ लिया और बोली  "मुझ पर और पाप मत चढाओ बहन । मैं तुम्हारी अपराधिनी हूं । तुम्हारा सारा जीवन नष्ट कर दिया है मैंने , फिर भी तुम मेरा कितना ध्यान रखती हो ! वास्तव में मैं तुम्हारे सामने कुछ भी नहीं हूं शर्मिष्ठा । आओ , मेरे पास बैठो सखि । मैंने तुम्हें बहुत दुख दिये हैं । मेरे अपराध क्षमा योग्य नहीं हैं सखि । यदि हो सके तो मुझे क्षमा कर देना सखि" । कहते कहते देवयानी शर्मिष्ठा के पैरों की ओर झुकने लगी ।  "अरे अरे, ये क्या कर रही हैं स्वामिनी ? आप मुझ पर पाप चढा रही हैं स्वामिनी । आज क्या हो गया है आपको ? आपका स्वास्थ्य तो ठीक है ना ? मैं अभी राज वैद्य जी को बुलवाती हूं" । शर्मिष्ठा उठकर जाने लगी ।  देवयानी ने शर्मिष्ठा का हाथ पकड़कर रोक लिया और उसे अपने पास बैठाते हुए कहा "सखि , आज ही तो मेरा स्वास्थ्य ठीक हुआ है । व्याधिग्रस्त तो मैं पूर्व में थी । मानसिक अवसाद में ग्रसित थी मैं सखि । इसी अवसाद के कारण मैं तुम पर ये अन्याय कर बैठी । आज से मैं तुम्हें अपने दासत्व से मुक्त करती हूं । अब तुम अपना जीवन स्वतन्त्रता के साथ जी सकती हो । जाओ शर्मिष्ठे जाओ ! अपना जीवन जी लो । अभी चली जाओ यहां से । क्या पता बाद में मेरा मन परिवर्तित हो जाये ? मैं ऐसी ही हूं शर्मि । पल में तोला तो पल में माशा । इसलिए मौके का लाभ उठाकर यहां से चली जाओ शर्मि । और हो सके तो मुझे क्षमा कर देना बहिन" । देवयानी आंसुओं के सागर में डूब गई ।

शर्मिष्ठा के मन में आया कि आज देवयानी बहुत प्रसन्न है । इस अवसर का लाभ उठाकर उसे यहां से चले जाना चाहिए । लेकिन अगले ही पल यह सोचा कि यह देवयानी का क्षणिक आवेग है । उसका मानसिक संतुलन ठीक नहीं है । ऐसे में वह उसे छोड़कर कैसे जा सकती है ? कल को यदि कोई बात हो जायेगी तो पता नहीं वह क्या कर बैठे ? और वह जायेगी भी तो कहां ? क्या अपने घर ? वहां शुक्राचार्य पूछेंगे तो क्या जवाब देगी वह ? और फिर उसकी मंजिल तो सम्राट ही हैं न ! वे उसके हृदय रूपी मंदिर के देवता हैं । वह यहां रहकर प्रतिदिन उनके दर्शन तो कर सकती है ना ? मन ही मन उनकी आरती तो कर सकती है ना ? इस पर तो किसी को कोई ऐतराज भी नहीं होना चाहिए । नहीं, वह नहीं जायेगी यहां से , चाहे कुछ भी हो जाये । उसने सोच लिया ।

"आप बहुत थक गई हैं स्वामिनी । थोड़ा और विश्राम कर लीजिए अभी । और आज तो आपका रात्रि जागरण भी होने वाला है । ऐसी थकी हुईं जायेंगी क्या सम्राट से मिलन के लिये ? आज की रात्रि तो बहुत विशेष है आपके लिए । आप पहले विश्राम कर लें फिर श्रेष्ठतम सैरंध्रियां आपको तैयार करने के लिए आ जायेंगी । आपके जलपान की कुछ व्यवस्था करूं क्या , स्वामिनी" । शर्मिष्ठा बहुत विनम्र होकर कहती रही ।  "नहीं सखि ! मुझे कुछ नहीं चाहिए । मैं अब विश्राम करूंगी पर तुम्हारे साथ में । हम दोनों सखियों को साथ सोये हुए बहुत दिन हो गये हैं न । इसलिए आओ, आज दोनों साथ में सोते हैं । जाओ, दरवाजे की कुंदी बंद कर दो और मेरे साथ आकर सो जाओ" । शर्मिष्ठा के पास कोई विकल्प नहीं था । वह देवयानी के पास आकर सो गई ।

श्री हरि  5.9.23

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1 Comments

madhura

06-Sep-2023 05:20 PM

Nice

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